नाराजगी के स्वर (Editorial page) 04th April 2018

By: D.K Chaudhary

भारत बंद भले ही न हुआ हो, लेकिन हिल जरूर गया है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम के बारे में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला पिछले दिनों आया, उसे लेकर दलित समुदाय में काफी आक्रोश है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि इस कानून में सिर्फ प्राथमिकी के आधार पर जो गिरफ्तारी होती है, वह गलत है। आदर्श स्थिति तो शायद यही होती है कि सुप्रीम कोर्ट अगर किसी मसले पर कोई फैसला दे दे, तो या तो उसे मान लिया जाए और नहीं तो उसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका डाली जाए। केंद्र सरकार ने इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाल भी दी है, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है। ऐसा नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ लोग पहली बार सड़कों पर उतरे हों। अभी कुछ ही हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म पद्मावत  की रिलीज के लिए आदेश दिया था, लेकिन इसे लेकर कुछ संगठनों को विरोध इतना उग्र हो गया था कि कई राज्य सरकारें उसके आगे झुक गईं। लेकिन यहां हमें यह भी समझना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के खिलाफ दलित संगठनों का विरोध उतना अतार्किक भी नहीं है, जितना कि पद्मावत  मामले में करणी सेना का था। 

इसके साथ ही हमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को भी समझने की कोशिश करनी होगी। दुनिया भर के नागरिक अधिकार संगठन हमेशा से यह कहते रहे हैं कि अगर किसी भी गैर-नृशंस अपराध में सिर्फ एफआईआर के आधार पर गिरफ्तारी का प्रावधान है, तो उसका दुरुपयोग होगा ही। ऐसा दहेज विरोधी कानून में तो हमने तो बहुत ज्यादा देखा है। जाहिर है कि ऐसा दुरुपयोग एससी-एसटी ऐक्ट के कुछ मामलों में भी होता ही होगा। इस सवाल का जवाब कभी सरल नहीं रहा कि अगर किसी प्रावधान का दुरुपयोग होता ही है, तो क्या एकमात्र विकल्प उसे हटाना ही है? हमारी न्याय व्यवस्था अगर तेज चले, तो हो सकता है कि ऐसे दुरुपयोग बहुत दूर तक न जा पाएं, लेकिन ऐसा नहीं है, इसलिए किसी भी दुरुपयोग का असर भी बहुत दूर तक जाता है। न्याय व्यवस्था अगर तेज होती, तो शायद ऐसे प्रावधान की जरूरत ही न पड़ती।

ठीक यहीं पर हमें दलित समुदाय की पीड़ा को भी समझना होगा। आजादी के इतने साल बाद भी उन्हें सामाजिक स्तर पर जिस भेदभाव और प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है, वह किसी भी सभ्य कहलाने वाले समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। जिस दिन भारत बंद का आयोजन हुआ, उसी दिन अखबारों में यह खबर थी कि एक दलित युवा घोड़ी पर चढ़कर अपनी शादी के लिए जाना चाहता है और गांव में उच्च जातियों के लोगों को यह गवारा नहीं। प्रशासन भी उसकी मदद में असमर्थ था। देश में दलित सदियों से कई तरह की मनोवैज्ञानिक हिंसा को झेलते आए हैं। ऐसे में, उन्हें एससी-एसटी ऐक्ट एक औजार की तरह लगता है, जो कई तरह की मानसिक हिंसा से उनका बचाव कर सकता है। इसलिए इस प्रावधान को हल्का बनाया जाना उन्हें किसी भी तरह से स्वीकार नहीं। दलितों के आक्रोश का यह अकेला कारण नहीं है। इसे आप पिछले दिनों अंबेडकर की मूर्तियां तोडे़ जाने से भी जोड़कर देख सकते हैं, सोशल मीडिया पर चल रहे आरक्षण विरोधी अभियानों से भी। अच्छा होता कि ऐसे प्रावधान हटाने से पहले हम उस सामाजिक व्यवस्था को हटाते, जो दलितों के अपमान का कारण बनती है।

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