By: D.K Chaudhary
सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका की सुनवाई करने के लिए तैयार हो गया है जिसमें यह मांग की गई है कि अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए सरकारी सेवाओं और योजनाओं में दिए जा रहे आरक्षण में क्रीमीलेयर की अवधारणा को लागू करने की मांग की गई है। इस याचिका ने अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को दिए जा रहे आरक्षण के संबंध में कई प्रश्नों को जन्म दिया है? सबसे पहला तो यही है कि एससी/एसटी के आरक्षण में क्रीमीलेयर की क्यों जरूरत है? दूसरे, क्या एससी/एसटी में शामिल सभी समूह विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक पैमानों पर एक ही धरातल पर हैं? तीसरे, यदि नहीं तो क्या इन्हें समान समूह मानकर एक साथ ही सरकारी सेवाओं या योजनाओं में शामिल करना उचित है? इसके पहले 2011 में भी एक दलित अधिकारी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गई थी जिसमें एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करने की मांग की गई थी। फिर पिछले साल अक्टूबर, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान यह सवाल उठाया था कि क्या सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से प्रगति कर चुके एससी/एसटी के लोगों को आरक्षण का लाभ देना उचित होगा? उसने यह भी पूछा था कि क्या ऐसे लोग अपने ही वर्ग के पिछड़े लोगों का हक नहीं मार रहे हैं? उन्हें आरक्षण का लाभ क्यों मिले, जबकि उसी वर्ग के लोग उनसे पीछे छूट गए हैं? सुप्रीम कोर्ट का एक सवाल यह भी था कि क्या इन पर क्रीमीलेयर की अवधारणा लागू की जा सकती है? इसी कड़ी में एससी/एसटी में भी अत्यंत निम्न स्तर पर अवस्थित लोगों के एक संगठन ‘समता आंदोलन समिति’ की वर्तमान याचिका है।
याचिका में कहा गया है कि एससी/एसटी को मिलने वाले आरक्षण का फायदा निचले स्तर तक नहीं पहुंच पा रहा है। 95 फीसद लोग अभी तक आरक्षण का लाभ ले ही नहीं सके हैं। एक खास वर्ग आरक्षण का फायदा उठा रहा है। इसमें यहां तक कहा गया है कि ये पांच प्रतिशत लोग नए शोषक हैं जो 95 फीसद लोगों का हक मार रहे हैं। पहले फायदा उठा चुके और प्रगति कर चुके लोग ही सारी सुविधाओं पर कब्जा जमाए रहते हैं और कमजोर तबके हमेशा कमजोर ही बने रहते हैं। याचिका में यह भी दावा किया गया है कि आज भारत में कोई भी जातीय वर्ग समान रूप से पिछड़ा नहीं है अर्थात एक ही जाति के अंदर कुछ लोग सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए हैं तो कुछ अन्य सशक्त हैैं। उक्त समिति की मांग है कि एससी/एसटी में भी केवल कमजोर लोगों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। उसने केंद्र सरकार की लोकुर कमिटी रिपोर्ट (1965) का भी हवाला दिया है, जिसमें एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमीलेयर की अवधारणा को शामिल करने की अनुशंसा है। इस संदर्भ में केंद्र सरकार की ऊषा मेहरा आयोग रिपोर्ट (2008) की भी अनुशंसा है। याचिका पर गौर करें तो इसमें समस्या के वैयक्तिक पहलू पर ही फोकस किया गया है, जबकि समस्या का बड़ा पहलू उसका सामूहिक पहलू है। वैयक्तिक स्तर पर यह सही है कि एक बार आरक्षण पाकर आइएएस, आइपीएस या अन्य उच्च पदों पर आसीन लोगों के बच्चों का फिर आरक्षण का लाभ लेना और अपने ही एससी/एसटी समुदाय के कमजोर तबकों के बच्चों को आगे नहीं आने देना अनुचित है। सच तो यह है कि यह न केवल सामाजिक न्याय की अवधारणा के विपरीत है, बल्कि संवैधानिक रूप से भी गलत है।
आरक्षण की बुनियाद है सामाजिक न्याय की अवधारणा यानी समाज के उन कमजोर तबकों को देश के आर्थिक विकास, शिक्षा, रोजगार और पद-प्रतिष्ठा में एक भागीदारी देना जो सदियों से इनसे वंचित रहे हों। तो क्या आरक्षण का लाभ एससी/एसटी वर्ग के कुछ ही लोगों तक सीमित रह जाना चाहिए? चूंकि स्पष्ट उत्तर ‘न’ में है इसलिए यह मांग उचित ही है कि एससी/एसटी के आरक्षण में क्रीमीलेयर की अवधारणा को समाहित किया जाए। समस्या का दूसरा पहलू सामूहिक है, जिस पर शायद याचिकाकर्ता का ध्यान नहीं गया। जब संविधान में एससी/एसटी को रोजगार या शिक्षा इत्यादि में आरक्षण दिया गया तो यह मान लिया गया था कि इन वर्गों में शामिल सभी जातियां सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, भौगोलिक और अन्य पैमानों पर वंचना के समान धरातल पर अवस्थित हैं और उनके उत्थान के लिए एक साथ ही आरक्षण तय कर दिया गया। अनजाने या जानबूझकर इसकी अनदेखी कर दी गई कि इन समुदायों में शामिल विभिन्न जातियां या जनजातियां विकास और अन्य पैमानों पर अलग-अलग पायदान पर हैं।
मिसाल के लिए एक तरफ ऐसी घुमक्कड़ जनजातियां हैं जो अभी भी जंगल में रहकर जीवनयापन करती हैं तो दूसरी तरफ ऐसी जनजातियां हैं जो जमीन आदि से अपेक्षाकृत संपन्न हैं और मुख्यधारा से जुड़ी हैं। ऐसे में यह न केवल अतार्किक और अनुचित था, बल्कि संविधान की भावनाओं के प्रतिकूल भी। यह संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकार विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण के अधिकार का भी उल्लंघन है जो अनुच्छेद 14 में उल्लिखित है। इंडियन एक्सप्रेस बनाम भारत संघ (1986) और सेंट स्टीफेंस बनाम दिल्ली यूनिवर्सिटी (1992) मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने इस अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा है कि जो समान नहीं हैं उनके साथ समानता का व्यवहार करना उचित नहीं है। आवश्यक यह है कि उनके साथ उनकी असमानता की स्थिति को ध्यान में रखकर आचरण किया जाए। इस अनदेखी की वजह से केंद्र सरकार की सेवाओं अथवा शैक्षणिक संस्थाओं में एससी/एसटी वर्ग की कुछ ही जातियों का वर्चस्व नजर आता है। संयोग से ये जातियां राजनीतिक रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली हैं और किसी भी परिवर्तन के खिलाफ हैं।
दलित कहानीकार ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘शवयात्रा’, या सत्यप्रकाश की ‘दलित ब्राह्मण’ जैसी कहानियां दलितों के अंतर्विरोधों का प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। एससी/एसटी वर्ग में शुमार विभिन्न कमजोर जातियों को भी सामाजिक न्याय का फल चखने को मिले, इसी बिंदु पर उपवर्ग की अवधारणा सामने आती है अर्थात आरक्षण सीमा के भीतर विभिन्न आधारों पर उपश्रेणियां बनाना। हाल में ओबीसी जातियों के लिए आरक्षण सीमा के भीतर उपवर्ग की संभावना के लिए केंद्र सरकार ने एक आयोग गठित किया है। एससी/एसटी वर्ग की जातियों में भी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थिति आदि के आधार पर आरक्षण सीमा में कुछ उपवर्ग बनाए जाने चाहिए। केंद्र सरकार इसके लिए भी एक आयोग गठित करे जो एक समय सीमा के अंदर अपनी सिफारिशें दे दे। सामाजिक न्याय का यही तकाजा है।