लेकिन मेडिकल और इंजिनियरिंग में दाखिले की इच्छा रखनेवाले युवाओं की दृष्टि से देखा जाए तो यह एक जरूरी फैसला है। इससे दो साल की तैयारी के बाद एक दिन खराब निकल जाने के खौफ से तत्काल राहत मिलेगी। अपनी तैयारी और मूड के हिसाब से अब वे एक या दूसरी परीक्षा में या फिर दोनों में बैठने का फैसला कर सकते हैं। भले ही देश में इंजिनियरिंग और मेडिकल की सीटें न बढ़ी हों, परीक्षार्थियों की संख्या में बड़ी कमी आने के भी कोई आसार न हों, फिर भी प्रवेशार्थियों को अपना प्रदर्शन सुधारने की उम्मीद जरूर मिलेगी। इन परीक्षाओं की तैयारी में कोचिंग के रोल पर भी इस फैसले से शायद ही कोई असर पड़े, लेकिन कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के जो युवा कोचिंग जॉइन करने की स्थिति में नहीं होते, वे भी जनवरी/फरवरी के तजुर्बे का इस्तेमाल अप्रैल/मई वाले इम्तहान में करके अपनी संभावना सुधार सकते हैं।
हालांकि, बीच में उन्हें इंटरमीडिएट का इम्तहान भी देना होगा, जिसका ढांचा बिल्कुल अलग होता है। मेडिकल-इंजिनियरिंग कॉलेजों के प्रबंधन के लिए भी यह फैसला इस अर्थ में राहतदेह है कि इससे उन्हें कुछ बेहतर विद्यार्थी मिल सकते हैं। एक बार की परीक्षा में कुछ संभावना इस बात की भी हुआ करती थी कि औसत से थोड़ा कमतर विद्यार्थी भी कुछेक संयोगों की वजह से प्रवेश पा जाएं। इन कॉलेजों की ओर से जब-तब यह शिकायत भी आती रही है कि कई स्टूडेंट दाखिला तो पा जाते हैं, लेकिन पढ़ाई की चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते। दो परीक्षाओं की वजह से ऐडमिशन का कटऑफ थोड़ा ऊपर जा सकता है। साफ है कि इंजिनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों को पहले के मुकाबले बेहतर स्टूडेंट मिलेंगे तो, उन्हें बेहतरीन डॉक्टर या इंजिनियर बनाने की उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाएगी। इस क्रम में यह जरूर याद रखना चाहिए कि इंजिनियरिंग और मेडिकल की सरकारी सहायतावाली करीब 85,000 सीटों के लिए कोई 25 लाख युवा आवेदन करते हैं। यह असंतुलन भी हमें देर-सबेर दूर करना ही होगा।