By: D.K Chaudhary
सीबीआई जज बी एच लोया की 2014 में हुई मौत के तीन साल बाद मीडिया में आई कुछ रिपोर्टों के चलते यह मामला नए सिरे से चर्चा में आया था। चूंकि मौत के पहले वह गुजरात के सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी आरोपी थे, इसलिए इस पूरे मामले का एक राजनीतिक पहलू भी था। मीडिया रिपोर्टों और उन पर आधारित याचिकाओं का कथा-सूत्र यह था कि शाह को क्लीन चिट देने के लिए तैयार न होने की कीमत जज लोया को चुकानी पड़ी। बहरहाल, अब हमारे देश का सर्वोच्च न्यायिक विवेक सभी पहलुओं और उपलब्ध साक्ष्यों पर गौर करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा है कि जज लोया की मौत को संदिग्ध मानने का कोई कारण नहीं है, तो यह बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए।
इसके बाद जो चीज बची रह जाती है, वह है साजिश का सवाल। जब खुद सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के पीछे साजिश की आशंका जताई है तो इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। ध्यान देने की बात है कि जज लोया की मौत को लेकर संदेह का शिकार हुए लोगों में विख्यात और प्रतिष्ठित वकीलों के अलावा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज भी शामिल रहे हैं। चार सीनियर जजों की बहुचर्चित प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक माननीय न्यायमूर्ति ने माना था कि सुप्रीम कोर्ट के विवादित मसलों में जज लोया का मामला भी शामिल है। ऐसे में इस प्रश्न को अनुत्तरित नहीं छोड़ा जा सकता कि याचिका दायर करने वालों ने किस तरह की साजिश की थी, और इसके पीछे किसको क्या फायदा या नुकसान पहुंचाने का इरादा काम कर रहा था। सुप्रीम कोर्ट की राय के मुताबिक संबंधित लोगों पर अवमानना का मुकदमा भी चलना चाहिए और हर हाल में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि साजिश की कोई परत छुपी न रह जाए।