By: D.K Chaudhary
विवाद शायद अभी भी खत्म न हों, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तरफ से जस्टिस बृजगोपाल हरिकिशन लोया के मामले पर पूर्णविराम लगा दिया है। अदालत का कहना है कि उनका निधन जिन परिस्थितियों में हुआ, उसकी स्वतंत्र जांच कराने की कोई जरूरत नहीं है। मामले में उठाई जा रही तमाम आपत्तियों को खारिज करते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले पीठ ने उन न्यायाधीशों की गवाही को महत्वपूर्ण माना, जिनका कहना था कि जस्टिस लोया का निधन हृदय गति रुक जाने के कारण हुआ था। हालांकि तमाम राजनीतिक कारणों से कई लोग उनके निधन को रहस्यमय मान रहे थे और उसके लिए काफी बड़ा अभियान चलाया जा रहा था। तकरीबन साढ़े तीन साल पहले एक विवाह समारोह के लिए नागपुर गए जस्टिस लोया को यात्रा के दौरान ही दिल का दौरा पड़ा और तब से यह मुद्दा लगातार सुर्खियों में बना हुआ है। विवाद इसलिए भी बना है कि जस्टिस लोया उन दिनों शोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें एक आरोपी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी थे।
पूरे मामले में यही एक ऐसा कोण है, जिसने इसे संवेदनशील बना दिया और उनके निधन को लेकर बाकायदा एक राजनीति शुरू हो गई। राजनीति इतनी हुई कि एक दिसंबर 2014 को उनके निधन से लेकर अब तक शोहराबद्दीन का मामला पीछे चला गया और जस्टिस लोया का निधन मुख्य मामला बन गया। विवाद जब बढ़ा, तो पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल रामदास ने यह मामला उठाया और इसे लेकर वह सुप्रीम कोर्ट चले गए। उनकी मांग थी कि इस मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश और एक पूर्व पुलिस अफसर की अध्यक्षता में हो। ताजा फैसला उसी अपील से जुड़ा है। यह भी सच है कि जस्टिस लोया के निधन से जुड़ी कुछ घटनाएं थीं भी ऐसी, जिससे शक की गुंजाइश बनती थी और इसी पर राजनीति खेली जा रही थी। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आते ही यह राजनीति और तेज हो गई है।
यहां मुख्य मामला यह नहीं है कि सच क्या था और झूठ क्या था? मामला यह है कि हमारे देश की कई संस्थाएं ऐसी क्यों बन गई हैं कि उन्हें कभी भी शक के दायरे में लाया जा सकता है? पुलिस नाम की संस्था पर हम पूरी तरह से विश्वास नहीं करते और उन्हें सत्ताधारी दल की कठपुतली ही मानते हैं। एनकाउंटर वास्तविक भी हो सकता है, इसे मानने को शायद ही कोई तैयार हो। जांच एजेंसियों की विश्वसनीयता लगातार खत्म हो रही है। सीबीआई को तो खुद सुप्रीम कोर्ट ने ही पिंजरे में बंद तोता कहा था। और जहां तक न्यापालिका का मामला है, तो इन दिनों उसके फैसलों पर भी सवाल ज्यादा ही उठाए जाने लगे हैं। ये स्थितियां विभिन्न दलों को अपनी राजनीति चमकाने के अवसर भी देती हैं।
मान लीजिए, देश की ये सारी संस्थाएं पूरी तरह विश्वसनीय होतीं, तो न ये शक और शुबहे उठते, न ही मामले को इतनी तूल मिलती और न ही इस पर हो रही राजनीति इतनी लंबी खिंचती। जाहिर है कि अगर हमें इस सूरत को बदलना है, तो इन सारी संस्थाओं को निष्पक्ष और विश्वसनीय बनाना होगा। इसके लिए जरूरी है कि हम पुलिस सुधार, प्रशासनिक सुधार और न्यायिक सुधार, सब एक साथ करें। इस तरह से करें कि इन संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त किया जा सके, वरना ऐसे विवाद उठते रहेंगे।