By: D.K Chaudhary
सार्वजनिक अस्पतालों में कामकाज के तरीके, सुविधाओं और संसाधन की कमी, कर्मचारियों की बेरुखी और लापरवाही आदि को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। पर न तो अस्पताल प्रशासन किसी घटना से कोई सबक लेता देखा जाता है और न उसके कर्मचारी। मुंबई के एक अस्पताल की एमआरआइ मशीन में फंसने से हुई युवक की मौत इसका ताजा उदाहरण है। बताया जा रहा है कि युवक अपने किसी रिश्तेदार से मिलने वहां के नायर अस्पताल गया था। तब मरीज को एमआरआइ के लिए ले जाया जा रहा था। एमआरआइ कक्ष के सहायक ने युवक से मरीज का आक्सीजन सिलिंडर पकड़ने कहा। हालांकि परिजनों ने उसे चेताया कि एमआरआइ कक्ष में धातु से बनी कोई भी चीज ले जाना खतरनाक साबित हो सकता है, पर सहायक ने उसे उकसाया कि डरने की कोई बात नहीं, मशीन बंद है। वे लोग रोज यही काम करते हैं। उसके कहने पर युवक ने आक्सीजन सिलिंडर पकड़ लिया और नतीजा यह हुआ कि पहले से ही चालू एमआरआइ मशीन ने चुंबकीय प्रभाव से सिलिंडर सहित युवक को अंदर खींच और उसकी तत्काल मौत हो गई। हालांकि महाराष्ट्र सरकार ने मृतक के परिवार को पांच लाख रुपए मुआवजे का एलान कर दिया है, अस्पताल प्रशासन ने तीन कर्मचारियों को निलंबित कर दिया है, पर मृतक के परिजन और रिश्तेदार अस्पताल में धरने पर बैठे हैं।
करीब सात महीने पहले लखनऊ के राममनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में भी एक मंत्री के साथ पिस्तौल लेकर उनका सुरक्षाकर्मी एमआरआइ कक्ष में घुस गया था। तब मशीन ने चुंबकीय प्रभाव से वह पिस्तौल खींच ली थी। गनीमत है तब कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ था, पर मशीन को ठीक होने में करीब दस दिन लग गए थे, जिसके चलते बाकी मरीजों को खमियाजा भुगतना पड़ा। अस्पताल कर्मियों की ऐसी लापरवाही आम है। जबकि सबको पता है कि एमआरआइ मशीन में बहुत तेज चुंबकीय प्रभाव पैदा होता है, जिसके चलते वह किसी भी धातु की चीज को खींच लेती है। मगर हैरानी की बात है कि एमआरआइ कक्ष में काम करने वाले डॉक्टर और सहायक ऐसी मामूली एहतियात बरतने में भी लापरवाही करते हैं! अंदाजा लगाया जा सकता है कि इलाज संबंधी बाकी चीजों में वे कितनी संजीदगी बरतते होंगे।
मुंबई के जिस अस्पताल में युवक की मौत हुई वहां बताया जा रहा है कि एमआरआइ करने वाला डॉक्टर मौजूद नहीं था। यह काम वहां तैनात सहायक कर रहे थे। यह भी कोई नई बात नहीं है। सार्वजनिक अस्पतालों में चिकित्सकों और दूसरी सुविधाओं की कमी तो एक बड़ी समस्या है ही, डॉक्टर खुद मरीजों की जांच वगैरह करने के बजाय उसे अपने सहायकों या अप्रशिक्षित अस्पताल कर्मियों के कंधों पर छोड़ कर गायब रहते हैं। ऐसे में चिकित्सा सहायक मरीजों के साथ खुद को प्रशिक्षित डॉक्टर की तरह पेश आते हैं, बल्कि अक्सर उनसे अमानवीय व्यवहार करने से भी नहीं हिचकते। जो जांचें मशीनों के जरिए की जाती हैं, उनमें वे मान कर चलते हैं कि मशीन का संचालन सीख लेना भर नतीजों तक पहुंचने के लिए काफी है। मगर ठीक से जांच न हो पाने से अक्सर गलत इलाज शुरू हो जाता है, बड़े हादसे हो जाते हैं और उनकी लापरवाही की कीमत मरीजों को अपनी जान गंवा कर चुकानी पड़ती है। चिकित्सीय लापरवाहियों पर रोक लगाने के मकसद से कड़े कानून हैं, पर जब तक चिकित्सा कर्मियों में दायित्वबोध पैदा नहीं होगा, ऐसे हादसों पर शायद ही अंकुश लगे