न्‍यायपालिका की प्रतिष्ठा का अहम प्रश्न (Editorial Page)

 By: D.K Chaudhary  15th Nov 2017

सुप्रीम कोर्ट ने सदाशयता का परिचय दिया। हालांकि उसने वकील कामिनी जायसवाल और कैंपेन फॉर ज्युडिशियल एकाउंटिबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) के वकीलों के व्यवहार को अवमाननाकारी माना, लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू नहीं की। तीन सदस्यीय बेंच ने उम्मीद जताई कि आगे सभी पक्ष सद्भावना का परिचय देंगे। फिर कहा- ‘इस महान संस्था के हित में हम सबको एकजुट हो जाना चाहिए। कह सकते हैं कि न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल, अरुण मिश्र और एएम खानविलकर की खंडपीठ की इस टिप्पणी में दरअसल जन-आकांक्षा अभिव्यक्त हुई है। भारत में जनहित की रक्षा में न्यायपालिका ने अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय लोकतंत्र के दीर्घकालिक हित के नजरिए से यह जरूरी है कि न्यायपालिका की साख व प्रतिष्ठा बनी रहे। जबकि एक ताजा घटनाक्रम में कुछ ऐसे सवाल खड़े हुए, जो सिरे से अवांछित हैं। 

कामिनी जायसवाल और सीजेएआर के वकील प्रशांत भूषण ने ऐसी याचिकाएं दायर कीं, जिनसे सर्वोच्च न्यायालय के जजों पर लांछन लगता नजर आया। आरोप है कि लखनऊ मेडिकल कॉलेज को काली सूची से हटवाने के लिए न्यायपालिका को प्रभावित करने की साजिश रची गई। इस मामले में सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज करने के बाद बीते 21 सितंबर को उड़ीसा हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज इशरत मसरूर कुद्दुसी को गिरफ्तार किया था। लखनऊ मेडिकल कॉलेज उन 46 मेडिकल कॉलेजों में है, जिन्हें दो साल तक छात्रों को दाखिला देने से रोक दिया गया है। बताया जाता है कि जस्टिस कुद्दुसी ने लखनऊ मेडिकल कॉलेज के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट से फैसला दिलवाने का वादा किया था। इसी को लेकर इस पूरे प्रकरण की जांच विशेष जांच दल (एसआईटी) से करवाने की गुजारिश करते हुए दोनों याचिकाएं दायर की गईं। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने ध्यान दिलाया कि कुद्दुसी के इस बयान के पक्ष में कोई और साक्ष्य सामने नहीं आया है कि जजों को देने के लिए पैसा इकट्ठा किया गया। तो सवाल उठा कि क्या सुनी-सुनाई बातों अथवा किसी आरोपी के बयान के आधार पर ऐसी अर्जी दी जा सकती है, जिससे सुप्रीम कोर्ट के जजों की साख पर आंच आती हो? फिर कामिनी जायसवाल के याचिका देने के बाद सीजेएआर ने एक और अर्जी दायर कर दी। दोनों याचिकाकर्ताओं की इस आपसी होड़ को सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की प्रतिष्ठा धूमिल करने वाला बताया। 

कुल मिलाकर यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरण है। किसी न्याय व्यवस्था की थाती उसकी साख और न्यायाधीशों की छवि होती है। किसी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए, जिससे इन पर आंच आए। उचित यह होता कि सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के पहले दोनों याचिकाकर्ता पूरा होमवर्क करते। अकाट्य साक्ष्य इकट्ठा करते। लेकिन उन्होंने एक आरोपी के बयान को सच मान लिया। वो भी ऐसा बयान, जिससे यह पता नहीं चलता कि आखिर किस जज को प्रभावित करने की योजना बनाई जा रही थी। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने उदारता दिखाई है। अब उसकी भावना के मुताबिक न्यायपालिका के सभी पक्षों को मिल-जुलकर इस महान संस्था की साख की रक्षा करने में जुट जाना चाहिए।

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