दलितों के घर खाना Editorial page 05th May 2018

By: D.K Chaudhary

राजनीतिक हलकों में इधर दलितों को लेकर खासी हलचल दिखने लगी है। लगभग रोज ही कोई ऐसा बयान आ रहा है, जिससे नई बहस छिड़ जा रही है। दिलचस्प बात यह कि तकरीबन सारे बयान और सारी बहसें दलितों के किसी ठोस मुद्दे से नहीं, उनके घर खाना खाने से जुड़ी हैं। एक नेता ने यह कहते हुए दलितों के घर खाने से इनकार कर दिया कि ‘मैं कोई राम नहीं हूं जो मेरे साथ खाने से वे पवित्र हो जाएंगे।’ एक अन्य नेता ने दलितों के घर भोजन करने वाले नेताओं की तुलना भगवान राम से कर दी जिन्होंने शबरी के जूठे बेर खाए थे। एक अन्य नेता इस वजह से चर्चित हुए कि दलित के घर जाकर उन्होंने कैटरर के हाथों बाहर से बनवाया हुआ खाना खाया।
हैरत और अफसोस की बात यह है कि हमारी राजनीति आज भी एक जन समुदाय के घर खाने या न खाने की बहस पर केंद्रित है। उस शासनादेश को भी हम इसी संदर्भ में देख सकते हैं कि सरकारी कागजात में दलित शब्द का इस्तेमाल न किया जाए। इस उठापटक के बीच यह रेखांकित करना जरूरी है कि भारत में दलित प्रश्न कोई काल्पनिक सवाल नहीं है। हमारे समाज का एक हिस्सा आज भी अपने जन्म के आधार पर अपमान और प्रताड़नाएं झेलता है। बिला वजह मार-पीट, मूंछें उखाड़ लेने, घोड़ी न चढ़ने देने जैसी घटनाएं आज भी उसकी नियति बनी हुई हैं। कोई राजनीतिक दल ऐसी घटनाओं के खिलाफ सड़क पर नहीं आता।

क्या दलितों को कोई ऐसी घोषणा करनी होगी कि उनका सामना भी बिजली, पानी, सड़क, अस्पताल, पढ़ाई, सुरक्षा और रोजगार जैसी उन्हीं समस्याओं से हो रहा है, जो बाकी समाज को परेशान करती हैं? फिर कोई नेता या पार्टी उनके घर खाना खाने का आडंबर करे, इससे उनकी कौन सी समस्या हल हो जाएगी? भारतीय राजनीति में जरा भी संवेदना बची होती तो वह देश के हर मनुष्य के लिए एक न्यूनतम मानवीय गरिमा सुनिश्चित करने का प्रयास करती। अफसोस कि इस बात की रत्ती भर भी चिंता उन राजनेताओं में नहीं दिखती, जो दलितों के साथ खाना खाते हुए अपना फोटो खिंचाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।

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