इस मजबूत सरकार से कुछ बड़े बदलावों की आशा की जा रही थी और खुद मोदी और उनके सहयोगियों ने इसका वादा भी किया था। आज उन वादों की कसौटियों पर सरकार को कसें तो एक बात साफ है कि टीम मोदी ने अपेक्षा के अनुरूप कई साहसिक फैसले किए, जिनमें नोटबंदी और जीएसटी का मुकाम सबसे ऊंचा है।
खासकर नोटबंदी के फैसले के साथ बहुत बड़ा जोखिम जुड़ा था। इससे की गई अपेक्षाओं को लेकर कई जरूरी आंकड़े सरकार ने अभी नहीं जारी किए हैं लेकिन एक बात तो तय है कि इसके कारण देश का रुझान नकदी से हटा है। बड़े ही नहीं खुदरा कारोबार में भी डिजिटल पेमेंट और ऑनलाइन ट्रांजैक्शन का चलन बढ़ा है, जो काले धन पर रोक के लिए जरूरी है।
इसी तरह तमाम शुरुआती उलझनों के बावजूद जीएसटी ने अर्थव्यवस्था का चरित्र बदला है। फैक्टरी से लेकर आम ग्राहक तक ज्यादातर लेनदेन अब ऑन रिकॉर्ड होता जा रहा है। इन दोनों उपायों से टैक्स के दायरे में आने वालों की संख्या बढ़ी है, जो आगे और बढ़ेगी। कूटनीति के मोर्चे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रियता से विश्व के सामने भारत की एक मजबूत छवि पेश हुई है। प्रधानमंत्री ने जिस तरह विश्व के बड़े नेताओं से आत्मीय और अनौपचारिक संबंध कायम किए, वह खुद में एक नई बात है। इसका लाभ यह हुआ कि दुनिया भर में फैले भारतीय समुदाय को एक नई पहचान मिली, लेकिन अफसोस की बात है कि अपना सबसे बड़ा वादा मोदी सरकार पूरा नहीं कर पाई। चुनावी घोषणा पत्र में उसने हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था, मगर हकीकत कुछ और ही निकली। सरकार की सोच है कि सिर्फ नौकरी को ही रोजगार न माना जाए, लेकिन ऐसा तब होता जब काफी लोगों को स्वरोजगार के साधन उपलब्ध हो पाते। स्टार्ट-अप योजना के जरिए इस दिशा में एक कोशिश जरूर हुई पर वह लहर दो साल भी नहीं चली। सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले रीयल एस्टेट सेक्टर का हाल बुरा है। इस सदी में सबसे ज्यादा मध्यवर्गीय नौकरियां टेलिकॉम सेक्टर में मिलती थीं, जो अचानक समस्याग्रस्त लगने लगा है।
अमेरिका के संरक्षणवादी रवैये के कारण बीपीओ सेक्टर पहले ही ठहर चुका है। ई-कॉमर्स के देसी खिलाड़ी गायब हैं, लड़ाई दो अमेरिकी कंपनियों तक सिमट गई है, लेकिन सरकार के पास अभी एक साल का वक्त है। इस बीच वह जनता की कुछ मुश्किलें दूर कर दे तो सरकार को अपने गुण गाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। यह काम लोग करेंगे।