By: D.K Choudhary
न्यायपालिका को अमेरिकी पैटर्न पर जूरी सिस्टम का सूत्रपात करना चाहिए ताकि सामाजिक सरोकारों से जुड़े मसलों को जनता के सहयोग से निपटाया जा सके
डॉ ए के वर्मा
दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में दीपावली पर प्रदूषण रोकने के लिएपटाखों की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लेकर तरह-तरह के तर्क-वितर्क हैं। लोकतंत्र में कोई अंतिम सत्य नहीं होता, फिर भी राजनीतिक फलक पर जनता का बहुमत और संवैधानिक फलक पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करने की बाध्यता होती है। पटाखों की बिक्री पर रोक वाले फैसले के पीछे एक नेक इरादा खता है, लेकिन इसका एक आर्थिक पहलू भी है।
दिल्ली-एनसीआर के जिन तमाम व्यापारियों ने एक माह पहले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में संशोधन के बाद उन्हें खरीदा उनके नुकसान की भरपाई कौन करेगा? क्या दीपावली के बाद पटाखों की बिक्री में ढील देने से इस नुकसान की भरपाई हो जाएगी? ऐसा फैसला दिल्ली-एनसीआर के लिए ही क्यों? पूरे देश में यह प्रतिबंध क्यों नहीं? क्या और शहरों में प्रदूषण की समस्या नहीं? एक सवाल यह भी है कि क्या सामाजिक सरोकारों और सामाजिक-समूहों के सरोकारों में कोई संतुलन नहीं हो सकता? सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने यह मूल सवाल भी खड़ा किया है कि क्या संविधान न्यायपालिका को अपनी शक्तियों का विस्तार करने की इजाजत देता है? हमारे संविधान निर्माताओं ने अमेरिका की तरह न्यायिक-सर्वोच्चता और ब्रिटेन की तरह संसदीय-सर्वोच्चता का सिद्धांत स्वीकार नहीं किया था।
उन्होंने व्यवस्थापिका और न्यायपालिका में संतुलन बनाया था, लेकिन काफी समय से सर्वोच्च न्यायालय ने इस संतुलन को दरकिनार कर न्यायिक सर्वोच्चता की स्थापना कर दी है। 1973 में केशवानंद भारती मुकदमे में शीर्ष न्यायालय ने संविधान के मूल-ढांचे का सिद्धांत प्रतिपात किया था। इसके अनुसार संसद या मंत्रिमंडल के किसी निर्णय को वह न केवल इस आधार पर निरस्त कर देगा कि वह संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध है, वरन इस आधार पर भी कि वह संविधान के मूल-ढांचे के अनुकूल नहीं है। यह ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ने मूल-ढांचे को परिभाषित नहीं किया है। यह एक ऐसी तलवार है जो अदृश्य है और जो संसद या सरकार के किसी भी निर्णय पर ‘न्यायिक ट्रंप कार्ड’ की भी तरह है। 1980 में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी ने बिहार की जेलों में बंद असंख्य कैदियों की रिहाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी।
हुसैनआरा खातून बनाम गृह सचिव बिहार नाम वाले इस मुकदमें में न्यायमूर्ति पीएन भगवती की खंडपीठ ने 40000 कैदियों की रिहाई के आदेश ए। जस्टिस भगवती ने अनु 39अ के अंतर्गत मुफ्त न्यायिक मदद को सार्थक करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक ‘जनहित याचिका अनुभाग’ की स्थापना की। तबसे व्यक्तियों, गैर-सरकारी संस्थाओं और सामाजिक समूहों की ओर से जनहित याचिकाओं की बाढ़ सी आ गई है। बीते 37 वर्षो में कई ‘प्रोफेशनल जनहित याचिकावादी’ प्रकट हो गए हैं। भारत जैसे बड़े देश में असंख्य समस्याएं हैं और विधानमंडलों एवं सरकारों की अकर्मण्यता तथा उपेक्षा के चलते नागरिकों की असंख्य गंभीर समस्याएं अनुत्तरित हैं। जनता को न्यायपालिका की सक्रियता अपनी समस्याओं का एकमात्र निदान लगती है।
अनेक न्यायाधीश भी सामाजिक संवेदनशीलता के चलते जनहित याचिकाओं की उपेक्षा नहीं कर पाते, लेकिन इससे न्यायालय का मूल काम बाधित होता है। ऐसे में जरूरत इसकी है कि जनहित याचिकाओं से निपटने के लिए न्यायपालिका अमेरिकी पैटर्न पर किसी जूरी सिस्टम का सूत्रपात करे जिससे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मसलों को जनता के सहयोग से निपटाया जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने जब से मानव अधिकारों को भी मौलिक अधिकारों में शरीक करना शुरू किया है तबसे उसका कार्यक्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो गया है, क्योंकि अनेक नए-नए अधिकार मौलिक अधिकारों की परिधि में आ गए हैं।
हर छोटे-बड़े मामले को सुलझाने की प्रवृत्ति से एक सवाल यह भी उठ रहा है कि संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए जो सीमांकन किया था क्या सर्वोच्च अदालत उसे समाप्त करना चाहती है? संविधान के अनु 32 में सर्वोच्च न्यायालय को केवल मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए ‘रिट’ (अनुदेश) जारी करने का अधिकार था। अनु 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को ‘रिट’ जारी करने का अधिकार न केवल मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए वरन ‘अन्य किसी भी उद्देश्य’ के लिए प्रदान किया गया था। उद्देश्य यह था कि सर्वोच्च न्यायालय काम के बोझ से बहुत दबा होगा, क्योंकि उस पर सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों से आने वाली अपीलों और पूरे देश की जनता के मौलिक अधिकारों को लागू कराने का दायित्व होगा। इसके अलावा केंद्र-राज्य या दो राज्यों के बीच विवाद वाले कुछ ऐसे मुकदमे होंगे जो केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही लाए जा सकते हैं।
उच्च न्यायालयों में अनु 226 के अंतर्गत जनहित याचिकाओं का निस्तारण तो उचित है पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी उन सभी मुकदमों की सुनवाई करना जो ‘अन्य किसी भी उद्देश्य’ के अंतर्गत आते हैं कितना उचित और संवैधानिक है? अमेरिकी संविधान में ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ द्वारा वहां का सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, जबकि भारत में अनु 21 द्वारा न्यायालय ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ के अनुरूप ही ऐसा कर सकता है। अमेरिकी न्यायालय किसी कानून या आदेश को न केवल संविधान के प्रावधानों के आधार पर जांचता है वरन अच्छे-बुरे होने का भी निर्णय लेता है जबकि भारतीय न्यायपालिका संविधान के प्रावधानों के अनुसार ही निर्णय देने का अधिकारी था, लेकिन उसने इसे विस्तार दे या है।
वह ‘संविधान के मूल ढांचे’ के आधार पर किसी भी कानून या आदेश को निरस्त कर सकता है। यह न्यायालय द्वारा स्वयं को ‘न्यायिक वीटो’ देने जैसा है जिसकी कल्पना संविधान बनाने वालों ने कभी नहीं की थी। 1सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक नियुक्तियों का भी अधिकार कार्यपालिका से लगभग छीन सा लिया है। यह कहने में हर्ज नहीं कि शीर्ष न्यायपालिका द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों का विस्तार कर काम के बोझ को बढ़ा लिया गया है। अमेरिका में भी 1803 में मारबरी बनाम मेडिसन मुकदमें में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अधिकारों को बढ़ा लिया था। अन्य देशों में भी यही प्रवृत्ति है। 2007 में न्यायमूर्ति माकर्ंडेय काटजू ने हुए कहा था, न्यायाधीशों को अपनी लक्ष्मण रेखा खींचनी चाहिए और सरकार चलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए..।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आनंद भी यह कह चुके हैं कि न्यायाधीशों को न्यायिक दुस्साहस से बचना चाहिए और कानून की सीमाओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय को सुनिश्चितत करना होगा कि कैसे जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग को रोका जाए, कैसे अपने बोझ को कम किया जाए और कैसे उन मुकदमों पर ज्यादा ध्यान या जाए जो वास्तव में काबिले गौर हैं। इसके साथ ही उसे कुछ ऐसा भी करना होगा कि सरकार के तीनों अंगों में पारस्परिक सम्मान बना रहे।
[लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी फॉर पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं]