बीजेपी शुरू से इसके पक्ष में रही है। उसके पास अभी लोकसभा में पूर्ण बहुमत भी है। इसलिए सरकार को यह मौका चूकना नहीं चाहिए। महिला आरक्षण बिल संविधान में 85वें संशोधन का विधेयक है, जिसके तहत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है। इसी 33 फीसदी में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित की जानी हैं। इस विधेयक को पहली बार 1996 में तत्कालीन देवगौड़ा सरकार ने पेश किया था। तब से यह बिल लगातार अधर में झूलता रहा है। लोकसभा के अनेक सत्रों में यह विचार के लिए आया और इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। आखिरकार 2010 में यूपीए सरकार ने अपने कुछ सहयोगी दलों के विरोध के बावजूद राज्यसभा से इसे पारित करवा लिया। अब इसे केवल लोकसभा से पारित होना है। कुछेक पार्टियों को इस पर ऐतराज रहा है कि इसमें पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों से आई महिलाओं के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है। वे चाहती हैं कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों की तरह इसमें ओबीसी और अल्पसंख्यकों के लिए भी सीटें आरक्षित करने का प्रावधान हो।
उन्हें डर है कि वर्तमान स्वरूप में इस बिल के पास होने से सवर्ण राजनीति का दबदबा बढ़ेगा, क्योंकि ज्यादातर मुखर और पढ़ी-लिखी महिला कार्यकर्ता इस तबके से ही आती हैं। लेकिन जमीनी अनुभव को देखें तो इस बिल से सवर्ण वर्चस्व बढ़ने की आशंका निराधार लगती है। हमारे देश में लोग शिक्षित या मुखर होने के आधार पर नहीं बल्कि सामाजिक समीकरण और निजी सक्रियता के आधार पर चुनाव जीतते हैं। बिहार के स्थानीय निकायों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण के बहुत अच्छे नतीजे देखे गए हैं। इसमें न सिर्फ दलित और पिछड़े समुदायों की महिलाएं इन संस्थाओं में बड़ी संख्या में चुनकर आई हैं बल्कि, जमीनी महिला नेताओं के उभार से राज्य की राजनीति में पहले से अधिक तार्किकता और शालीनता आई है। इसलिए सारी दुविधा छोड़कर अब बिल पास कराया जाए।