By: D.K Chaudhary
विधेयक का आम राय से पारित होना विपक्ष के ‘रणनीतिक भूल सुधार’ के अलावा मुसलिम महिलाओं में जागृति का भी परिणाम है, जिसकी अनदेखी अब कोई पार्टी नहीं करना चाहती। यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी तीन तलाक का मसला जोर-शोर से उठाती रही, और कानून बन जाने पर वह उसका श्रेय लेने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगी। पर विधेयक दरअसल कुछ मुसलिम महिलाओं की याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की देन है। इस साल अगस्त में सर्वोच्च अदालत के पांच जजों के एक पीठ ने तीन-दो के बहुमत से तीन तलाक या तलाक-ए-बिद्दत को अवैध और असंवैधानिक ठहराया था। फिर, पीठ में शामिल दो जजों ने यह भी कहा था कि सरकार तीन तलाक पर छह महीने में कानून बनाए। इस फैसले का व्यापक स्वागत हुआ था।। हालांकि इस फैसले के कुछ समय बाद एक बार सरकार ने कहा था कि इस बारे में कानून बनाने का उसका कोई इरादा नहीं है। पर बाद में उसे यह इल्म हुआ होगा कि अगर कानून नहीं बना तो सर्वोच्च अदालत के फैसले का व्यवहार में कोई मतलब नहीं रह जाएगा। फिर, विधेयक लाने की घोषणा कर दी गई। विधेयक में प्रावधान है कि तीन तलाक चाहे वह लिखित, मौखिक या डिजिटल रूप में हो, अमान्य होगा। ऐसा करने पर तीन साल की जेल और जुर्माना भी होगा। दूसरे प्रमुख प्रावधान के मुताबिक तलाक-ए-बिद्दत की दशा में पत्नी और आश्रित बच्चों के जीवनयापन तथा दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गुजारा भत्ता की व्यवस्था है। पत्नी नाबालिग बच्चों की अभिरक्षा की भी हकदार होगी।
लेकिन तीन साल की सजा के प्रावधान पर काफी सवाल उठे हैं, संसद के भीतर भी और संसद के बाहर भी। यहां तक कि मुसलिम महिला संगठनों को भी यह सवाल कुरेद रहा है। सवाल यह है कि अगर तीन तलाक की दशा में पति को तीन साल की जेल हो जाती है, तो पत्नी और नाबालिग बच्चों के गुजारे की व्यवस्था कैसे होगी, क्योंकि जेल में रहने की अवस्था में पति की आय का जरिया छिन चुका होगा। सरकार इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब अभी तक नहीं दे सकी है, पर ऐसे संकेत हैं कि शायद सजा का प्रावधान तीन साल से कम किया जाएगा। तीन तलाक के खिलाफ कानून स्वागत-योग्य है, पर यह भी जरूरी है कि कानून का प्रारूप अधिक से अधिक तर्कसंगत हो।