By: D.K Chaudhary
बहुमत से सात सीट दूर खड़ी बीजेपी सत्ता की दावेदारी पेश करती, उसके पहले ही कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन का ऐलान कर दिया और उनके गठबंधन ने सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए राज्यपाल से समय भी ले लिया। लेकिन जैसी आशंका थी, राज्यपाल ने हाल में दी गई कई मिसालों को एक तरफ रखकर पूर्ण बहुमत की शक्ति वाले गठबंधन के दावे को नकार दिया और बिना बहुमत वाले दल के नेता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। गैर बीजेपी दलों का आरोप है कि गवर्नर ने ऐसा करके लोकतंत्र का गला घोंटा है, क्योंकि विश्वास मत के लिए दिए गए 15 दिन के समय में विधायकों की खरीद-फरोख्त होगी। संविधान इस मामले में अब भी राज्यपाल के विवेक को तवज्जो देता है, लेकिन विपक्ष का यह कहना भी सही है किसी सरकार को बहुमत साबित करने के लिए ज्यादा समय देने पर हॉर्स ट्रेडिंग होती है।
हाल में गोवा, मेघालय और मणिपुर में राज्यपालों ने सबसे बड़ी पार्टी के बजाय चुनाव बाद बने गठबंधनों को ही सत्ता सौंपी थी। कर्नाटक में वह परंपरा अचानक बदल दिए जाने की कोई वजह नहीं बनती। लेकिन इस गड़बड़झाले के पीछे असल कारण यह है कि कोई स्पष्ट संवैधानिक व्यवस्था इस बारे में अभी तक बनाई नहीं जा सकी है। कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई बाला के फैसले को लेकर बीजेपी का तर्क है कि राज्यपाल ने जनादेश का सम्मान करते हुए अपने विवेक का इस्तेमाल किया, लेकिन विपक्ष का कहना है कि उन्होंने केंद्र के इशारे पर काम किया। अब यहां कौन सही है और कौन गलत, यह व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है। अस्सी के दशक में जिस तरह कर्नाटक के ही बोम्मई केस में उसने फैसला दिया था कि बहुमत का फैसला सदन में ही हो सकता है, राजभवन में नहीं, उसी तरह उसे यह भी तय कर देना चाहिए कि राज्यपाल द्वारा किसी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किस आधार पर लिया जाए। जनादेश की जटिलता राज्यपालों को लगातार कठघरे में खड़ा कर रही है। कहीं ऐसा न हो कि अस्सी के दशक की तरह भारतीय लोकतंत्र में उनकी स्थिति एक बार फिर केंद्र सरकार के अलोकतांत्रिक फैसलों के स्विचबोर्ड जैसी बन जाए।